एक आदमी की नई नई शादी हुई और
वो अपनी पत्नि के साथ वापिस आ रहे थे! रास्ते
में वो दोनों एक बडी झील को नाव के द्वारा पार
कर रहे थे, तभी अचानक एक भयंकर तूफ़ान आ
गया ! वो आदमी वीर था लेकिन औरत बहुत
डरी हुई थी क्योंकि हालात बिल्कुल खराब थे!
नाव बहुत छोटी थी और तूफ़ान वास्तव में
भयंकर था और दोनों किसी भी समय डूब सकते
थे!
लेकिन वो आदमी चुपचाप, निश्चल और शान्त
बैठा था जैसे कि कुछ नहीं होने वाला हो!
औरत डर के मारे कांप रही थी और
वो बोली "क्या तुम्हें डर नहीं लग रहा" ये हमारे
जीवन का आखरी क्षण हो सकता है!
ऐसा नहीं लगता कि हम दूसरे किनारे पर
कभी पहुंच भी पायेंगे! अब तो कोई चमत्कार
ही हमें बचा सकता है वर्ना हमारी मौत निश्चित
है! क्या तुम्हें बिल्कुल डर नहीं लग रहा?
कहीं तुम पागल वागल या पत्तथर वत्तथर
तो नहीं हो?
वो आदमी खूब हँसा और एकाएक उसने म्यान
से तलवार निकाल ली? औरत अब और परेशान
हो गई कि वो क्या कर रहा था? तब वो उस
नग्गी तलवार को उस औरत की गर्दन के पास
ले आया, इतना पास कि उसकी गर्दन और
तलवार के बीच बिल्कुल कम फर्क
बचा था क्योंकि तलवार लगभग उसकी गर्दन
को छू रही थी!
वो अपनी पत्नि से बोल "क्या तुम्हें डर लग
रहा ह"?
पत्नि खूब हँसी और बोली "जब तलवार तुम्हारे
हाथ में है तो मुझे क्या डर"? मैं जानती हुँ
कि तुम मुझे बहुत प्यार करते हो !
उसने तलवार वापिस मयान में डाल दी और
बोला कि "यही मेरा जवाब है" ! मैं जनता हुँ
कि भगवान मुझे बहुत प्यार करता है और ये
तूफ़ान उसके हाथ में है !
इसलिए जो भी होगा अच्छा ही होगा ! अगर हम
बच गये तो भी अच्छा और अगर नहीं बचे
तो भी अच्छा, क्योंकि सब कुछ उस
परमातमा के हाथ में है और वो कभी कुछ
भी गलत नहीं कर सकता !
वो जो भी करेगा हमारे भले के लिए करेगा ।
शिक्षा :-हमेशा विश्वास बनाये रक्खो!
"व्यक्ति को हमेशा उस परमपिता परमात्मा पर
विश्वास रखना चाहिये जो हमारे पूरे जीवन
को बदल सकता है।"!.
एक पुरानी सी इमारत में वैद्यजी का मकान था। पिछले हिस्से में रहते थे और अगले हिस्से में दवाख़ाना खोल रखा था। उनकी पत्नी की आदत थी कि दवाख़ाना खोलने से पहले उस दिन के लिए आवश्यक सामान एक चिठ्ठी में लिख कर दे देती थी। वैद्यजी गद्दी पर बैठकर पहले भगवान का नाम लेते फिर वह चिठ्ठी खोलते। पत्नी ने जो बातें लिखी होतीं, उनके भाव देखते , फिर उनका हिसाब करते। फिर परमात्मा से प्रार्थना करते कि हे भगवान ! मैं केवल तेरे ही आदेश के अनुसार तेरी भक्ति छोड़कर यहाँ दुनियादारी के चक्कर में आ बैठा हूँ। वैद्यजी कभी अपने मुँह से किसी रोगी से फ़ीस नहीं माँगते थे। कोई देता था, कोई नहीं देता था किन्तु एक बात निश्चित थी कि ज्यों ही उस दिन के आवश्यक सामान ख़रीदने योग्य पैसे पूरे हो जाते थे, उसके बाद वह किसी से भी दवा के पैसे नहीं लेते थे चाहे रोगी कितना ही धनवान क्यों न हो। एक दिन वैद्यजी ने दवाख़ाना खोला। गद्दी पर बैठकर परमात्मा का स्मरण करके पैसे का हिसाब लगाने के लिए आवश्यक सामान वाली चिट्ठी खोली तो वह चिठ्ठी को एकटक देखते ही रह गए। एक बार तो उनका मन भटक गया। उन्हें अपनी आँखों के सामने तारे चमकते हुए नज़र आए किन्त...
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