"युवा समाज सुधारक संघ"
पैसा आदमी से क्या नहीं करवाता है"
जब पैसा नहीं होता है तो सब्जियां पका के खाता है
और
जब पैसा आ जाता है तो सब्जियां कच्ची खाता है।
जब पैसा नहीं होता है तो मंदिर में भगवान के दर्शन करने जाता है
और
जब पैसा आ जाता है तो इंसान भगवान को दर्शन देने जाता है।
जब पैसा नहीं होता है तो नींद से जगाना पड़ता है
और
जब पैसा आ जाता है तो नींद की गोली देके सुलाना पड़ता है।
जब पैसा नहीं होता है तो अपनी बीवी को सेक्रेट्री समझता है
लेकिन जब पैसा आ जाता है तो सेक्रेट्री को बीवी बना लेता है।।
ऐसा है ये पैसा अजीब है ये पैसा...?
छोटा सा जीवन है, लगभग 80 वर्ष।
उसमें से आधा =40 वर्ष तो रात को
बीत जाता है। उसका आधा=20 वर्ष
बचपन और बुढ़ापे मे बीत जाता है।
बचा 20 वर्ष। उसमें भी कभी योग,
कभी वियोग, कभी पढ़ाई,कभी परीक्षा,
नौकरी, व्यापार और अनेक चिन्ताएँ
व्यक्ति को घेरे रखती हैँ।अब बचा ही
कितना ? 8/10 वर्ष। उसमें भी हम
शान्ति से नहीं जी सकते ? यदि हम
थोड़ी सी सम्पत्ति के लिए झगड़ा करें,
और फिर भी सारी सम्पत्ति यहीं छोड़
जाएँ, तो इतना मूल्यवान मनुष्य जीवन
प्राप्त करने का क्या लाभ हुआ?
स्वयं विचार कीजिये :- इतना कुछ होते हुए भी,
1- शब्दकोश में असंख्य शब्द होते हुए भी...
मौन होना सब से बेहतर है।
2- दुनिया में हजारों रंग होते हुए भी...
सफेद रंग सब से बेहतर है।
3- खाने के लिए दुनिया भर की चीजें होते हुए भी...
उपवास शरीर के लिए सबसे बेहतर है।
4-पर्यटन के लिए रमणीक स्थल होते हुए भी..
पेड़ के नीचे ध्यान लगाना सबसे बेहतर है।
5- देखने के लिए इतना कुछ होते हुए भी...
बंद आँखों से भीतर देखना सबसे बेहतर है।
6- सलाह देने वाले लोगों के होते हुए भी...
अपनी आत्मा की आवाज सुनना सबसे बेहतर है।
7- जीवन में हजारों प्रलोभन होते हुए भी...
सिद्धांतों पर जीना सबसे बेहतर है।
इंसान के अंदर जो समा जायें वो
" स्वाभिमान "
और
जो इंसान के बाहर छलक जायें वो
" अभिमान "
✍🏻 कुलदीप
एक पुरानी सी इमारत में वैद्यजी का मकान था। पिछले हिस्से में रहते थे और अगले हिस्से में दवाख़ाना खोल रखा था। उनकी पत्नी की आदत थी कि दवाख़ाना खोलने से पहले उस दिन के लिए आवश्यक सामान एक चिठ्ठी में लिख कर दे देती थी। वैद्यजी गद्दी पर बैठकर पहले भगवान का नाम लेते फिर वह चिठ्ठी खोलते। पत्नी ने जो बातें लिखी होतीं, उनके भाव देखते , फिर उनका हिसाब करते। फिर परमात्मा से प्रार्थना करते कि हे भगवान ! मैं केवल तेरे ही आदेश के अनुसार तेरी भक्ति छोड़कर यहाँ दुनियादारी के चक्कर में आ बैठा हूँ। वैद्यजी कभी अपने मुँह से किसी रोगी से फ़ीस नहीं माँगते थे। कोई देता था, कोई नहीं देता था किन्तु एक बात निश्चित थी कि ज्यों ही उस दिन के आवश्यक सामान ख़रीदने योग्य पैसे पूरे हो जाते थे, उसके बाद वह किसी से भी दवा के पैसे नहीं लेते थे चाहे रोगी कितना ही धनवान क्यों न हो। एक दिन वैद्यजी ने दवाख़ाना खोला। गद्दी पर बैठकर परमात्मा का स्मरण करके पैसे का हिसाब लगाने के लिए आवश्यक सामान वाली चिट्ठी खोली तो वह चिठ्ठी को एकटक देखते ही रह गए। एक बार तो उनका मन भटक गया। उन्हें अपनी आँखों के सामने तारे चमकते हुए नज़र आए किन्त...
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