एक शर्मनाक कड़वी सच्चाई...!!!
नदी तालाब में नहाने में शर्म आती है,
और
स्विमिंग पूल में तैरने को फैशन कहते हैं.
गरीब को एक रुपया दान नहीं कर सकते,
और
वेटर को टिप देने में गर्व महसूस करते हैं.
माँ बाप को एक गिलास पानी भी नहीं दे सकते,
और
नेताओं को देखते ही वेटर बन जाते हैं.
बड़ों के आगे सिर ढकने में प्रॉब्लम है,
लेकिन
धूल से बचने के लिए 'ममी' बनने को भी तैयार हैं.
पंगत में बैठकर खाना दकियानूसी लगता है,
और
पार्टियों में खाने के लिए लाइन लगाना अच्छा लगता है.
बहन कुछ माँगे तो फिजूल खर्च लगता है,
और
गर्लफ्रेन्ड की डिमांड को अपना सौभाग्य समझते हैं.
गरीब की सब्ज़ियाँ खरीदने मे इन्सल्ट होती है,
और
शॉपिंग मॉल में अपनी जेब कटवाना गर्व की बात है.
बाप के मरने पर सिर मुंडवाने में हिचकते हैं,
और
'गजनी' लुक के लिए हर महीने गंजे हो सकते हैं.
कोई पंडित अगर चोटी रखे तो उसे एन्टीना कहते हैं.
और
शाहरुख के 'डॉन' लुक के दीवाने बने फिरते हैं.
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किसानों के द्वारा उगाया अनाज खाने लायक नहीं लगता,
और
उसी अनाज को पॉलिश कर के कम्पनियाँ बेचें, तो क्वालिटी नजर आने लगती है...॥
ये सब मात्र अपसंस्कृति ही नही,
देश व समाज का दुर्भाग्य भी है ।
-कुलदीप सिंह
एक पुरानी सी इमारत में वैद्यजी का मकान था। पिछले हिस्से में रहते थे और अगले हिस्से में दवाख़ाना खोल रखा था। उनकी पत्नी की आदत थी कि दवाख़ाना खोलने से पहले उस दिन के लिए आवश्यक सामान एक चिठ्ठी में लिख कर दे देती थी। वैद्यजी गद्दी पर बैठकर पहले भगवान का नाम लेते फिर वह चिठ्ठी खोलते। पत्नी ने जो बातें लिखी होतीं, उनके भाव देखते , फिर उनका हिसाब करते। फिर परमात्मा से प्रार्थना करते कि हे भगवान ! मैं केवल तेरे ही आदेश के अनुसार तेरी भक्ति छोड़कर यहाँ दुनियादारी के चक्कर में आ बैठा हूँ। वैद्यजी कभी अपने मुँह से किसी रोगी से फ़ीस नहीं माँगते थे। कोई देता था, कोई नहीं देता था किन्तु एक बात निश्चित थी कि ज्यों ही उस दिन के आवश्यक सामान ख़रीदने योग्य पैसे पूरे हो जाते थे, उसके बाद वह किसी से भी दवा के पैसे नहीं लेते थे चाहे रोगी कितना ही धनवान क्यों न हो। एक दिन वैद्यजी ने दवाख़ाना खोला। गद्दी पर बैठकर परमात्मा का स्मरण करके पैसे का हिसाब लगाने के लिए आवश्यक सामान वाली चिट्ठी खोली तो वह चिठ्ठी को एकटक देखते ही रह गए। एक बार तो उनका मन भटक गया। उन्हें अपनी आँखों के सामने तारे चमकते हुए नज़र आए किन्त...
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